गुरुवार, 17 जून 2010

- नक्सलवाद पर गिरीश पंकज की प्रस्तुति

अरुंधति राय जैसी पश्चिमोन्मुखी (और कुछ अर्थों में पतनोन्‍मुखी भी) लेखिकाओं को यह पता है कि अगर मीडिया में बने रहना है तो हथकंडे क्या हो सकते हैं। और वह अकसर सफल रहती हैं। अरुंधति के बहुत-से लटके-झटके मैं देखता रहा हूँ, सबका जवाब देने का कोई मतलब भी नहीं, लेकिन इस बार जब वह खुलेआम हिंसा की वकालत कर रही है तो न चाह कर भी कुछ लिखना पड़ रहा है। सृजनधर्मी मन हमेशा समाज को दिशा देने का काम करता है। मुक्तिबोध की कविता है-जो भी है उससे बेहतर चाहिए, पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए- तो लेखक की भूमिका कचरा साफ करने की होती है। कचरा बढ़ाने की नहीं। लेकिन जब समाज में हिंसा का कचरा फैलाने वाले बुद्धिजीवी बढ़ जाएँगे तो कल्पना करें कि सामाजिक परिदृश्य कैसा होगा? नक्सली कोई सामाजिक क्रांति के लिए जंगलों में नहीं भटक रहे हैं। वे हत्यारे हैं, एक तरह के आतंकवादी ही हैं, और सामाजिक समरसता के दुश्मन हैं। इनका मकसद है हत्या के सहारे अपने आतंक की सत्ता स्थापित करना। नक्सलवाड़ी से निकला आंदोलन उस वक्त जरूर विचारधारा के साथ सामने आया था। लेकिन धीरे-धीरे वह आंदोलन दिशाहीन घोड़े की तरह दौड़ता हुआ एक दिन अनैतिकता और अशांति की खाई में जा गिरा। नक्सलवाद के जनक कानू सान्याल को हताश हो कर आखिर आत्महत्या करनी पड़ी। सिर्फ इसलिए कि जिस आंदोलन को जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उन्होंने शुरू किया था, वे उद्देश्य तो पूरे नहीं हुए, उल्टे सामाजिक नुकसान ज्यादा हो गया। संघर्ष के सिपाही हत्यारे निकल गए। सुबह-शाम हत्या,हत्या और सिर्फ हत्या। हत्या नहीं तो फिर तोडफ़ोड़,अपहरण, लूटपाट आदि।

जंगल में मारे-मारे फिरते ये तथाकथित क्रांतिकारी आखिर चाहते क्या हैं? होना क्या चाहिए? एक बेहतर समाज-व्यवस्था ही न? लोग ईमानदारी से काम करें। गरीबों को उनका हक मिले। यह सब पाने के लिए मुख्यधारा में आने में क्या दिक्कत है? सामने आ कर चुनाव लड़ें। अपना पक्ष रखें और सरकार बनाएँ। मैं यह भी मानता हूँ कि अब जैसे चुनाव हो रहे हैं, उनमें बहुत अच्छे लोगों का निर्वाचन भी संदिग्ध है, क्योंकि वहाँ धन-बल और बाहुबल भी चलता है, फिर भी एक संभावना बनी हुई रहती है। कोशिश करके देखना चाहिए। हो सकता है, हम जैसी सरकार चाहते हैं, एक दिन वैसी ही सरकार बन जाए। मैं खुद इस वर्तमान व्यवस्था से नाखुश हूँ। जनप्रतिनिधि अपराधी है,धोखेबाज हैं। अफसर उससे भी ज्यादा खतरनाक है। और अगर आईएएस और आईपीएस हैं तो वो और ज्यादा भ्रष्ट, क्रूर, व्यभिचारी। दुर्भाग्य हमारे लोकतंत्र का,कि ये लोग ही देश चला रहे हैं। यह जो समूचा सिस्टम है, उसके खिलाफ मुहिम चलनी चाहिए। सबसे जरूरी है जनता को बौद्धिक बनानान। उसे ईमानदार करना। जनता को प्रलोभनों केसहारे बेईमान करने की काशिश होती है तंत्र के द्वारा। इसके विरुद्ध एक बिल्कुल नई लड़ाई की तैयारी की जानी चाहिए लेकिन सारी तैयारी अंहिंसक हो। अहिंसा हमारी ताकत बने। हिंसा भयानक कमजोरी है।

क्रूरता के विरुद्ध धैर्यपूर्वक लड़ी जा राही एक अहिंसक लड़ाई का एक उदाहरण देना चाहता हूँ। देवनार (मुंबई) में कसाईखाने के विरुद्ध तीस साल से आंदोलन चल रहा है। लोग आते हैं, धरना देते हैं, नारे लगाते हैं, गिरफ्तारी भी देते हैं और बाद में रिहा कर दिए जाते हैं। तीस साल से यह अभियान चल रहा है लेकिन कसाईखाना बंद नहीं हुआ। एक रास्ता यह भी हो सकता था, कि कुछ लोग जाते और कसाईखाना चलाने वाले की हत्या कर देते, कसाईखाने का बारूद से उड़ा देते। लेकिन क्या कसाईखाना बंद हो जाता? नहीं, वह चलता रहता। गाँधी और विनोबा जैसे चिंतन शांति और सद्भावना के साथ परिर्वतन की बात करते थे। विनोबा ने कहा था, कि अंहिंसक तरीके से अभियान चलाना,चाहे कितने ही साल लग जाए। कसाईघर के मालिक का दिल बदले। गो मांस खाने वालों में करुणा जगे। और यह दिल बदलने शताब्दियाँ भी लग सकती हैं। गाँधी की अहिंसा के सहारे चल कर एक दिन हम आजाद हुए ही। अँगरेजो को हमारे ‘करो या मरो’ के आगे झुकना ही पड़ा। हमारे लोग डंडे खाते थे और नमक बनाते थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन, सत्याग्रह जैसे जुमले गाँधीजी ने दिए। पूरी दुनिया उस रास्ते पर चल पड़ी ।

आज पूरी दुनिया में गाँधी जयंती ‘अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाई जाती है। और अरुंधती राय कहती है कि गाँधी के रास्ते से परिवर्तन नहीं हो सकता? कौन कहता है, नहीं हो सकता? इस राह पर चलने की कोशिश तो करो। हम पहले से ही यह सोच ले कि ऐसा नहीं हो सकता तो फिर वैसा हो भी नहीं सकता। कोशिश करें। बौद्धिक जागरण अभियान चलाएँ। यह भी ठीक है कि प्रक्रिया लंबी है। जैसा मैंने बताया तीस साल से आंदोलन चल रहा है, लेकिन कसाईखाना बंद नहीं हुआ, लेकिन कोई बड़ी बात नहीं, कि अगर कुछ लोग पूरे देश में आमरण अनशन पर बैठ जाएँ तो सरकार को झुकना ही होगा। लोग तय कर लें कि अब हमें गाय बचाने के लिए अपनी जान देनी ही है और बैठ जाएँ आमरण अनशन पर। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, सौ दिन..। जब तक जिंदा रह सकें, अनशन करे वरना मरने को तैयार रहें। एक दिन सरकार झुकेगी और बंद होगा कसाईखाना। गाँधीजी ने कितने उपवास किए, उसका असर होता था। अंगरेज सरकार झुकती थी। भगतसिंह और उनके साथियों ने भी जेल में यही किया। जेल में अनशन पर बैठ गए, सरकार झुकी। वैसे अब सरकारी नीचताएँ और ज्यादा सघन हो चुकी है। क्रूर लोग झुकते नहीं, लेकिन कहा गया है न कि पत्थर भी पिघल सकता है। यह व्यवस्थारूपी पत्थर पिघलेगा। हम अपनी जान देने के लिए तैयार तो रहें। लेकिन हम कायर लोग अपनी जान देने से डरते हैं और दूसरे की जान लेने के लिए तैयार रहते हैं। वो भी छिप कर। बस, साँप-छुछूमंदर का खेल चलने लगता है। नक्सली हिंसा करते हैं तो पुलिस और सैन्यबल उनको मारने की कोशिश करता है। इस चक्कर में भोले-भाले आदिवासी चपेट में आ जाते हैं।

दरअसल हिंसा इस दौर में एक एडवेंचर है। हिंसा करके बुद्धिजीवी समझते हैं, हम क्रांति कर रहे हैं। उनका समर्थन करके भी कुछ लोग यही समझते हैं कि हम सामाजिक परिवर्तन में अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। खादी का कुरता-पायजमा या जींस की फुलपैंट पहन कर आज के छद्म बुद्धिजीवी हवाईयात्राएँ करते हैं। पंचतारा होटलों मे रुकते हैं। वैभवशाली जीवन जीते हैं। तमाम तरह की चरित्रहीनताओं में लिप्त रहते हैं। महंगी शराब पीते हैं। अय्याशियाँ करते हैं। और वक्त मिला तो सामाजिक परिवर्तन का भाषण पेलते हैं। दुखद यह है कि पापुलर मीडिया (जनसंचार माध्यम) ऐसे ही लोगों के पास है। ‘आउटलुक’ पत्रिका में जब अरुंधति राय का नक्सलियों के साथ रहने वाली रपट छपी तो उसे और ज्यादा प्रचार मिला। अरुंधती को पता चला गया है कि उसकी कुछ तो मार्केट वेल्यू बन गई है। इसलिए वह डंके की चोट पर कहती है, कि उसे गिरफ्तार भी कर लिया जाए तो वह नक्सलियों का समर्थन बंद नहीं करेगी। और ठीक बात भी है। कल को अगर यह मूर्ख व्यवस्था उसका और अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए उसे गिरपफ्तार भी कर लेगी तो वही होगा जो अरुंधती चाहती है। वह और ज्यादा सुर्खियों में आ जाएगी। इसलिए कायदे से होना यह चाहिए कि उसकी बात तो सुनी जाए मगर उस पर कोई कानूनी कार्रवाई न हो। उल्टे जनता के बीच से ऐसे लोग सामने आएँ जो इस हिंसक मानसकिता का जवाब दे। हिंसक लोगों के खिलाफ अहिंसक तरीके से लड़ाई लड़ी जाए। वरना हिंसक और अहिंसक का भेद कैसे पता चलेगा? सरकार अरुंधती राय को गिरप्तार करेगी, जेल में ठूँस देगी या प्रताडि़त करेगी तो सरकार की अलोकतांत्रिक छवि ही उभर कर सामने आएगी। तब पूरी दुनिया में उसकी निंदा होगी।

हमारे देश में लोकतंत्र है। तानाशाही नहीं, कि किसी ने सरकार विरोधी बात की तो उसे अंदर कर दिया गया। कभी-कभी मूर्ख सरकारों द्वारा ऐसी हरकतें करने की कोशिशें भी होती है, तब दुख होता है। लोकतंत्र में खुल कर अपनी बात कहने की आजादी होनी चाहिए। तभी तो लोकतंत्र है। उसकी गरिमा है। लेकिन अगर कोई हिंसा की खुलेआम वकालत करता है तो जनता के बीच से आवाज उठे। दुख की बात है कि आवाजें उठती नहीं। हम लोगों के हाथों में जब से टीवी का रिमोट आ गया है, हम चैनल-बदल-बदल कर अपना समय निकाल देते हैं। ऐसी अराजक ताकतों के विरुद्ध गोष्ठियाँ नहीं करते। उनकी निंदा नहीं करते। इनका तरीके से जवाब नहीं दे पाते। देंगे भी तो हिंसक अंदाज में। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको है। अगर एक कहता है हम हिंसा के साथ है, तो दूसरा भी विनम्रता के साथ कहें कि हम अहिंसा के गायक हैं। अरुंधति के जो विचार सामने आए हैं, उससे साफ हो जाता है कि वे इस देश में हिंसक माहौल बनाना चाहती है लेकिन सरकार और समाज उनकी मंशा पूरी न होने दे। नक्सलियों के विरुद्ध सलवाजुडूम चल ही रहा है। इसे और मजबूत करने की जरूरत है। बस्तर और देश भर में नक्सलवाद के विरुद्ध जनजागरण अभियान चलना चाहिए। हिंसाप्रेमी लोगों को यह बात समझ में आनी चाहिए कि इस देश के लोग हिंसा के पक्षधर नहीं है। यह कोई बर्बरकाल नहीं है कि किसी ने अन्याय किया तो उसकी आँख फोड़ दी, हाथ काट दिया। यह लोकतांत्रिक समय है। यहाँ जो कुछ होगा, शांति के रास्ते पर चल की रही होगा। बस, धीरज की जरूरत है। नि:संदेह भ्रष्टतंत्र में जीते हुए मेरे जैसे गाँधीवादी को भी बेहद तकलीफ होती है। मेरे आसपास अनेक पापियों को फलते-फूलते देखता हूँ, उन नेताओ और घटिया-शातिर अफसरों को भी जानता हूँ, जिनकी जगह केवल जेल हैं। वे बड़े अपराधी है लेकिन हम लोग अहिंसा के सहारे क्रांति करने वाले हैं। समय लगेगा। व्यवस्था बदलेगी। हो सकता है हम लोग मर जाएँ फिर भी यह व्यवस्था बनी रहे। फिर भी आवाजें उठती रहे। आज नहीं को कल बेहतर लोग आएंगे। बेहतर दुनिया बनेगी। शातिर अपनी मौत मरेंगे। उनकी जान लेकर हम उनसे बड़े अपराधी बन जाते हैं। अगर नक्सलियों के संबंध में कहूँ, तो वे जान ले रहे हैं, तो सामाजिक परिवर्तन के लिए नहीं ले रहे। उनका उद्देश्य केवल सनसनी फैलाना है। यहाँ विचारधारा बेमानी है। इसलिए जब अरुंधति नक्सली-हिंसा का समर्थन करती है तो चिंता होती है। कहीं देश के अन्य बुद्धिजीवी भी पागल हिंसक सियार की तरह (हिंसा का) हुआ-हुआ न करने लगे इसलिए जरूरी है कि ऐसी अराजकताओं के विरुद्ध अहिंसक व्यवस्था को एकजुटता प्रदर्शित करनी ही पड़ेगी।

1 टिप्पणी:

girish pankaj ने कहा…

धन्यवाद भाई, आज इसे देखा,

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