सोमवार, 7 मई 2012


     माँ 

आकाश जैसा विस्तृत
मखमल जैसा कोमल
पकड़ कर चलना सिखा था
जिसका आँचल
सोचता हूँ याद कर
ममता के उस ताने बाने को
बाँध लूँ छोटी सी गठरी
कविता की
माँ को उपहार देने के लिए
याद आते ही आँचल का कोना
खिल उठता है यह दिल खिलौना
जिसके सहारे बड़ा हुआ था
याद है बचपन के वे दिन
जब माँ ही सच थी , शाश्वत थी
और उसकी हर सीख थी
एक पत्थर की लकीर
ओस भरी रातों में ठंढ से ठिठुरता था जब
माँ की आँचल में छिप जाता था तब
बिना रजाई के भी मिल जाती थी गर्माहट
और
पल भर में गहरी नींद में सो जाता था मैं
घर के बाहर कितने भी बहते थे आंसू
आँचल की ओट मिलते हीं
खिल उठती थी होठों की मुस्कान
कभी चपत भी खाया था
मगर होते थे मीठे
यादें ताज़ी हैं उनकी ,
कदम दर कदम
याद है
जब मैं निकला था पहली बार
घर से
लम्बे प्रवास के लिए
माँ की ममता आँखों से निकल कर
आँचल को भिगो रही थी
और मैं
चल पडा था भारी मन से
उसके हाथों की बनी रोटी साथ लिए
खोजता हूँ माँ को आज ,
उसी पुराने घर में जाकर
खंडहर सा दिखता है वह ,
उसके वहां न मिलने पर
चला आता हूँ वापस खाली हाथ
मायूस मगर यादों को समेटे हुए
कोसता हूँ नियति के उन नियमों को
जिसने दूर कर दिया मुझे मेरी माँ से
मगर
वह तो सदा हीं मेरे पास है
मेरे मन में , अंतर्मन में , और कण कण में

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