रविवार, 13 मई 2012

गली का दर्द



गली नाम की चीज 
निरंतर
कटती और बंटती रहती है 
बदले हालत में 
बेमौत मरती रहती है 
गाँव हो या शहर 
गलियों पर होता  रहता है कहर 
 उसकी चीख 
सुनी अनसुनी कर 
अड़े रहते हैं 
अपने अधिकार पर ||
गली बेचारी 
अपने आप में 
सिकुड़ती सहमती रहती है 
परन्तु सोचती है 
अपनी सम्पूर्णता के लिए 
तड़पती  है 
अपनी सम्पन्नता के लिए  
बिपन्न्ता की निशानियाँ 
नालियाँ
हरदम  बजबजाती रहती हैं 
कोई छोड़ जाता है वहाँ पर 
कूड़ा 
बना जाता है वहाँ पर 
एक गड्ढा 
जैसे हो फोड़ा 
चौड़ी गलियाँ भी 
संकरी हो जाती हैं 
ऐसे में गलियाँ 
रोती और घबराती हैं 
कभी कोई बाड़ लगाता  है
फूल और पौधे लगाने के लिए 
कोई दिवार कड़ी करजाता है 
अधिकार जताने के लिए 
उलझ जाते हैं लोग 
और कभी कपडे   
नाम होता है 
उस गली का 
छोड़ जाते हैं उसे 
बेबस
रोने और शर्माने के लिए ||

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